________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७१२ ॥ पांचवा विविक्तशय्यासन तप है ॥ ५॥ बहुरि आतापके स्थान वृक्षका मूल इनविषे बसना, चौडै निरावरण शयन करना, बहुतप्रकार आसनकरि प्रतिमायोग करना, इत्यादिक कायक्लेश तप है ॥ ६ ॥ सो यऊ देहकू कष्ट देनेके अर्थि है, परीषहके सहने के अर्थि है, सुखकी आभिलाषा मेटनेके अस्मिार्गकी प्रभावनाके अर्थि है इत्यादि प्रयोजनके अर्थ जानना ॥
इहां कोई पूछै, जो, परीषहमें अर यामें कहा विशेष है ? ताका समाधान, जो, स्वयमेव आवै सो तौ परीषह है अर आप चलाय करै सो कायक्लेश है । फेरि कोई पूछे, इन छह तपनिके बाह्यपणां केसे है? ताका समाधान, जो, ये तप बाह्यद्रव्यकी अपेक्षा लीये हैं। तातें आहारादिकका त्याग करना आदि इनमें प्रधान है । तातें इनकू बाह्यतप कहे हैं, तथा परके ए तप प्रत्यक्ष हैं, सर्वलोक इन तपनिकू जाने हैं, तातेंभी बाह्यतप कहिये । तथा बाह्य कहिये मोक्षमार्गत बाह्य
जे मिथ्यादृष्टि तेभी इनकं करे हैं। तातेंभी इनकं बाह्यतप कहिये हैं ॥ आगे अभ्यंतर तपके भेद | | दिखावनेकू सूत्र कहै हैं
॥ प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ॥२०॥ याका अर्थ- प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान ए छह उत्तर |
For Private and Personal Use Only