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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७१० ॥
गुप्तिसमिति होतैं या सूक्ष्मलोभकषायका होना यह विशेष गुण है । ताकी अपेक्षा न्याराही जानना | बहुरि सूत्र के अनुक्रमवचनकर उत्तरोत्तर अनंतगुणी विशुद्धता जाननी । बहुरि चारित्र के भेद शब्दअपेक्षा तो संख्यात हैं । बुद्धि के विचारतें असंख्यात हैं । अर्थ अनंतभेद हैं । ऐसें यहू चारित्र आश्रवके निरोध परमसंवरका कारण जानना । अर समितिविषै प्रवर्तें है । तामें धर्म अनुप्रेक्षा परीषहनिका जीतना चारित्र यथासंभव जाननें ॥
आगे पूछे है कि, चारित्र तौ कह्या, ताके अनंतर 'तपसा निर्जरा च' ऐसा कह्या था सो अब तपका विधान कहना । ऐसें पूछें कहैं हैं । तप दोयप्रकार है, बाह्य आभ्यंतर । सोभी प्रत्येक छप्रकार है । तहां बाह्य तपके भेद जाननेकूं सूत्र कहै हैं
॥ अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरस परित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः ॥ १९ ॥
याका अर्थ — अनशन, अवमौदार्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश ए छह बाह्यतप हैं । तहां इष्टफल कहिये धनकी प्राप्ति, जगतमें प्रशंसा स्तुति होना, रोगादिक मिटना, भय मिटना, मंत्रसाधन करना इत्यादिक इसलोकसंबंधी फलकी अपेक्षा जामें
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