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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७०३ ॥ आगे शिष्य कहै हैं, जो, परीपहनिका स्थानविशेषका तो नियम कह्या, सो जान्या । परंतु | कैसे कर्मकी प्रकृतिका कैसे परीषह कार्य हैं ? यह न जान्या । ऐसें पूछ सूत्र कहै हैं
॥ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने ॥ १३॥ ____याका अर्थ- ज्ञानावरणकर्मका उदय होतें प्रज्ञा अज्ञान ए दोय परीषह होय हैं । इहां तर्क, जो, यह अयुक्त है । जाते ज्ञानावरणके उदय होते अज्ञानपरीषह तो होय अर प्रज्ञापरीषह तो ज्ञानावरणके अभाव होते होय है। सो दोऊ परीषह ज्ञानावरणके उदयतें कहना अयुक्त है। ताका समाधान, जो, यह प्रज्ञा है सो ज्ञानावरणके क्षयोपशमतें होय है । सो परकै ज्ञानावरणका उदय होतें विज्ञानकला नाही होय तहां जाकै प्रज्ञा होय ताकै मद उपजावै है । अर सकल आवरणका क्षय भये मद नाहीं होय है। तातें ज्ञानावरणके उदयतें कहना बने है । इहां कोई कहै है, मद तो अहंकार है सो मोहके उदयहीत होय है । ताका समाधान, जो, यह परीषह चारित्रवानकै ज्ञानावरणके उदयकी शक्तिअपेक्षा कही है। तातें मोहके उदयमैं अंतर्भाव याका नाही, ज्ञानावरणहीकी मुख्यता लिये है ॥ आगे अन्य दोय कर्मके निमित्ततें भये परीषहकू कहै हैं
॥दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ ॥ १४॥
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