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॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७०५ ॥
याका अर्थ- कहे जे ज्ञानावरण आदिके निमित्ततें परीषह तिनतें अवशेष रहे ते वेदनी. यके उदय होते होय हैं। उपरि ग्यारहका निमित्त तो कह्या । अब शेष ग्यारह रहे ते वेदनीयके होते होय हैं । ते कौन ? क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृण स्पर्श, मल ए ग्यारह हैं ॥ आगें पूछे है कि, परीषहनिका निमित्त लक्षणभेद तो कहे, सो यह परीषह एक आत्माके एककाल केते आवै हैं ? ऐसें पूछे सूत्र कहै हैं
॥एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नैकोनविंशतिः ॥ १७॥ ___ याका अर्थ-- ए परीषह एककू आदि देकरि भाज्यरूप एक आत्माके विर्षे उगणीसताई आवे हैं । इह सूत्रमें आङ ऐसा उपसर्ग सो अभिविधिके अर्थि है । तातें उगणीसभी कोईविर्षे एककाल होय हैं ऐसें जानिये । सो कैसे ? शीत उष्ण दोऊ युगपत् न होय, तातें इनमेंतें एक बहुरि शय्या, निषद्या, चर्या ए तीनूं युगपत् न होय, तातें इनमेंतें एक बहुरि दोय ये घटे । ऐसे युगपत् एककालविणे उगणीसका संभव है । इहां तर्क जो, प्रज्ञा अज्ञान इन दोऊनिकैभी विरोध है। तातें इनका युगपत् असंभव है । ताका समाधान, जो, श्रुतज्ञानकी अपेक्षा तौ प्रज्ञापरीषह | अर अवधिआदिका अभावकी अपेक्षा अज्ञानपरीषह ए दोऊ युगपत् होय तातें विरोध नाहीं है ।
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