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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६९४ ॥
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अन्य किछू पात्र राखै नाहीं हैं । बहुरि बहुत दिनमें तथा बहुत घरनिमें आहारकू न पायकरि संक्लेशरहित है चित्त जिनका । बहुरि दातारका विशेषकी परीक्षाविर्षे जिनके उत्साह नाहीं है “जो, फलाणाके भोजन अवश्य मिलेगा तहां चलिये” ऐसा विचार नाहीं करे हैं। बहुरि आहारका अलाभ होय तब ऐसा मानें हैं हमारे तप भया बडा आनंद भया ऐसे संतुष्ट हैं । एकग्राममें अलाभ होय तो दूसरे ग्राम जाय नाहीं लेवै हैं। ऐसे मुनिराजके अलाभपरीषहका जीतना निश्चय कीजिये ॥ १५॥
नाना व्याधि रोग आवै तिनका इलाज न करै, सो रोगपरीषहसहन है। तहां कैसे हैं मुनि? शरीरवि निःस्पृह हैं । ऐसा विचारे हैं, जो, यह शरीर सर्व अशुचि वस्तुका तौ स्थानक है, | अनित्य है, राख्या रहै नाही, ताते याका कळू संस्कार संवारना आदि नाहीं करै हैं, बहुरि | अपने सम्यग्दर्शनआदि गुणरूप रत्न यामें संचय हैं तिनकू वधावने हैं, तिनकी रक्षा करनी है, तिनका यामें धारण होय है, ऐसें याकू तिन क्रियाका कारण जाणि याकी स्थितिका विधान जो
आहार आदि देना, सो करै हैं । जैसें व्यापारी गाडेकू अक्षम्रक्षण कहिये वांग करि चलावै तथा । गूमडा होय ताके किछु लेप न करै है, तैसें या आहार लेनेकरि अपना बहु उपकार जाणि योग्य |
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