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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान-६९७ ॥
ब्रह्मचर्य पालं हूं, बडा तपस्वी हूं, अपना परका मतका निर्णय करनहारा हूं, घणीवार परवादी. निळू जीतनहाग हूं, मेरी भक्ति वंदना आदर ऊंचा आसन देना आदि कोई न करे है । इनतें तो मिथ्यादृष्टीही भले हैं, बडे भक्तिवान हैं; जो अपना गुरु किछुभी नहीं जानता होय अज्ञानी होय ताकुंभी सर्वज्ञतुल्य मानि तिनका सन्मानकरि अपने मतका प्रभावना करै हैं । बहुरि सुनिये है, जो, पूर्वकालमें व्यंतरआदिक बड़े तपस्वीनिका पूजा करे थे सो यह किछु मिथ्याही दीखें है, सो यह सांची होय तो हमसारिखेनिका अवार पूजाआदि क्यों न करें ? ऐसा खोटा चिंतवन नाहीं करै है । ऐसे मुनिके सत्कारपुरस्कार परीषहका जीतना जाणिये ॥ १९॥
प्रज्ञा कहिये विज्ञान ताका मद न करना सो प्रज्ञापरीषहका जीतना है । तहां अंगपूर्वप्रकीर्णकके जाननेविर्षे तौ प्रवीण हैं, बहुरि शब्द न्याय अध्यात्मशास्त्रनिविर्षे निपुण हैं, ऐसा होय तौऊ मुनि आप ऐसा न विचारै, जो, मेरे आगे अन्य ऐसा भासे है “जैसे सूर्य के प्रकाशकरि | तिरस्कार कीये जे आग्याकीट प्रकाशरहित दीखै" ऐसा विज्ञानका मद न करे, सो प्रज्ञापरीका पहका जीतना कहिये ।। २०॥
अज्ञानपणेकरि अवज्ञातें ज्ञानके अभिलाषरूप परीषहका जीतना सो अज्ञानपरीषहका सहन
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