________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६९८॥
है। तहां मुनि दुष्ट जन कहैं, यह मुनि अज्ञानी है, पशुममान है, किछु जाने नाही इत्या| दिक निन्दाके वचन कहै, ताकू सहैं हैं । जो परमतपका आचरण कर है निरंतर प्रमादरहित वर्ते है तोऊ ऐसा न विचार है, जो मेरै अबताईभी ज्ञानका अतिशप नाही उपज्या,” ऐसा अभिप्राय नाहीं राखै है, ताके अज्ञानपरीषहका सहना जानना ॥ २१ ॥
दीक्षा लेना अनर्थक है ऐसी भावना न उपजे सो दर्शनपरीषहका सहन है । तहां कैसा है मुनि ? परमवैराग्यभावनाकरि शुद्ध है मन जाका, बहुरि जाना है सकलपदार्थका यथार्थस्वरूप जानें, बहुरि अरहंत अर अरहंतके प्रतिमाआदि तथा साधु तथा धर्म इनका पूजक है, बहुरि बहुतकालते मुनि भया है ऐमा है तोऊ ऐसा न विचारे है, जो “मेरे अवास्ताई ज्ञानका | अतिशय उपज्या नाही, पूर्व सुनिये है, जो, महान् उपवासादिकके करनेवालेनिकै प्रातिहार्यके | विशेष उपजे हैं, सो यह कथनी तौ प्रलापमात्र झूी है, यहू दीक्षा अनर्थक है, व्रतका धारण | विफल है” इत्यादिक नाही विचार है । जाते मुनिकै दर्शनकी विशुद्धता योग है । ऐसें अदर्शनपरीषहका सहन जानना ॥ २२ ॥
ऐसें बाईस परीषह हैं । परीषह आये क्लेशपरिणाम न करें । तातें रागादि परिणाम होय
For Private and Personal Use Only