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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६९२ ।।
ఆగానం కలకలం రండరగండరగండరగండరు
मात्रकूभी अपने हृदयविर्षे अवकाश न दे हैं। ऐसें आक्रोशपरीषहका जीतना होय है ॥ १२ ॥ ___मारने वालातें क्रोध न करना, सो वधपरिषहका सहन है । तहां तीखण छुरी मूशल मुद्गर
आदि शस्त्रनिके घातकरि ताडना पीडना आदितें वध्या है शरीर जिनका, बहुरि घात करनेवाले | विर्षे किंचिन्मात्रभी विकारपरिणाम नाही करै है, विचारै हैं “जो यह मेरे पूर्वकर्मका फल है ए देनेवाला गरीव रंक कहा करै ? यह शरीर जलके बुदबुदेकीज्यौं विनाशिकस्वभाव है, कष्टका कारण है, ताकू ए बाधा करै है, मेरे सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रकू तौ कोई घात सकै नाही" ऐसा विचार करते रहे हैं । कुहाडी बसोलाकी घात अर चंदनका लेपन दोऊनिकू समान दीखे हैं। तिनके वधपरीषहका सहना मानिये हैं। वे महामुनि ग्राम उद्यान वनी नगरनिविर्षे रात्रिदिन एकाकी नम रहे हैं । तहां चोर राक्षस म्लेंछ भील वधिक पूर्वजन्मके वैरी परमती भेषी इत्यादि क्रोधके वशि भये घात आदि करै हैं । तोऊ तिनके क्षमाही करै हैं । तिनके वधपरीषहसहना सत्यार्थ है ॥१३॥
प्राण के नाश होतेंभी आहारआदिवि दीनवचनकरि याचना नाही करै, सो याचनापरिषहका सहना है ॥ तहां बाह्य आभ्यंतरतपका आचरणविर्षे तो तत्पर रहैं, बहुरि तपकी भावनाकरि || साररहित भया है देह जिनका, तीव्र सूर्यके तापकरि जैसे वृक्ष सूकि जाय छाया” रहित होय जाय
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