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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६९१ ॥
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प्राणीकू बाधा होनेकी शंकाकरि जैसेंके तैसें सूते रहै । अंग• चलाचल न करै कलोट न ले । जैसे काठ पड्या होय तैसें पडे रहै । तथा जैसे मृतक पड्या होय तैसें निश्चल रहै । ज्ञानभावनाविर्षे लगाया है चित्त ज्यां, व्यंतरआदिके उपसर्ग होतेंभी नहीं चलाया है शरीर ज्यां, जेते काल | नियम कीया तेते काल जेती बाधा आवै तेती सहै हैं, सो शय्यापरिषहका सहन है ॥
याका विशेष जो, भयानक प्रदेशविर्षे शयन करे, तहां ऐसा विचार न उपजै, जो, यह | प्रदेश नाहर वघेरा चीता आदि दुष्टप्राणीनिका निवास है, इहांते शीघ्र निकलना भला है, रात्रि बहुत बडी है, कदि पूरी होयगी ऐसे विषाद न करै हैं । सुखकी प्राप्ति नाही वांछ है । पहले | कोमलशय्यापरि सोवते थे ताकू यादि न करे हैं ॥ ११ ॥
अनिष्ट दुर्वचन सहना, सो आक्रोशपरीषह है । मिथ्यादृष्टीनिके क्रोधके भरे कठोर बाधाके । करनहारे निंदा अपमानके झूठे वचन सुनें हैं, “जो ऐसैं दुर्चचन हैं तिनकू सुनतेही क्रोधरूप अमिकी ज्वाला बधि जाय है ऐसे हैं " तौऊ तिन वचननिकू झूठे माने हैं । तत्काल ताका इलाज करनेकू समर्थ हैं, जो आप क्रूरदृष्टीकरिभी ताकू देखें तो पैला भस्म होय जाय तौऊ अपना पाप- | कर्मके उदयहीकू विचारै तिनकू सुनिकरि तपश्चरणकी भावनाहीकेविर्षे तत्पर हैं, कषायका अंश
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