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॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६९० ॥
ज्ञान ताकरि परीक्षारूप कीया प्रदेश क्षेत्र ताविर्षे करी है नियमकी क्रिया ज्यां, कालका नियमकरि आसन मांडि बैठे हैं। तहां सिंह वघेरा आदिका भयानक शब्द सुननेकरि नाहीं कीया है भय ज्यां, देव मनुष्य पशु अचेतनपदार्थनिकरि कीया जो चारिप्रकार उपसर्ग तिनकरि नाहीं तज्या है मोक्षमार्गका साधन ज्यां, वीरासन उत्कुटिकासन इत्यादि जे कठिन आसन तिनकरि अविचलित है काय जिनका, ऐसें आसनकी बाधाका सहना, सो निषद्यापरिषह है ॥ याका विशेष जो, आसनका नियम करि बैठे तब उपसर्ग आवै तौ तिसका मेटनेका उपाय विद्या मंत्र आप जाने हैं-मेटनेकू समर्थ है, तोऊ ताका उपाय न करै हैं । बहुरि पूर्व कोमल गद्दीआदि बिछाय बैठे थे ताकू यादि न करे हैं। प्राणीनिकी रक्षाका अभिप्राय है तथा अपने स्वरूपके ध्यानमें लगि रहे हैं । तातें परीषहकी वेदना नाहीं है ॥ १०॥ . आगमकथित शयनतें न चिगै सो शयनपरिषहका सहन है। तहां वे मुनि ध्यानका गमनका खेदकरि मुहूर्तमात्र निद्रा ले हैं । सो कठोर नीची ऊंची बहुत कांकरी ठीकरिनिकरि भरी भूमिवि तथा सकडी जहां शरीर स्वच्छंद पसरै नाहीं ऐसी भूमिवि तथा जहां अतिशीतता | अतिउष्णता होय ऐसी भूमिप्रदेशविणे सोहै हैं। एकपार्श्व कीये तथा सूधे सोवै । सोवै सो
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