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॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६८८ ॥ .. मोहके उदयतें चित्त व्याकुल होय है, संयमके विर्षे अरति उपजि आवै है, तातें जुदा गिणिये ॥७॥
सुन्दरस्त्रीका रूपके दर्शन स्पर्शन आदिका अभाव स्त्रीपरीषहका जीतना है। तहा एकांत बाग उद्यान आदिविर्षे धन यौवन मद विभ्रम मदिरापानकरि प्रमत्त जे स्त्री आय बाधा करै तौऊ काछिवेकीज्यों संवररूप संकोच्या है इन्द्रियमनका विकार जिननें, बहुरि ललित मंदहास्य कोमल मीठे कामचेष्टाके वचन विलाससहित देखना हसना मंदकरि मंथर गमन करना तेही भये कामके | बाण तिनका व्यापार विफल करनेवाला है चारित्र जिनकै ऐसे मुनिकै स्त्रीवाधाका सहना जानना | । इहां विशेष जो, अन्यमतीनिकरि कल्पे जे ब्रह्मा आदि देवता ते तिलोत्तमा अप्सरा आदिका | रूप देखनेकरि विकारी भये स्त्रीपरीपहरूप पंकतें आपकू काढिवेकू असमर्थ भये अरु ए महामुनि आर्तरौद्रध्यानका फल संसारसमुद्रके कष्टमें गिरनेवाला निश्चयकरि अपने स्वरूपके ध्यान करते ऐसी परीषहतें न चिगै ते धन्य हैं ॥ ८॥
गमन करनेवि दोष न लगावै सो चर्यापषिह है। कैसे हैं मुनि? घणे कालतें धस्सा है | अभ्यासरूप कीया है गुरुनिके कुलविर्षे ब्रह्मचर्य जिनि, बहुरि जान्या है बंध मोक्ष पदार्थनिका या यथार्थस्वरूप जिनि, बहुरि संयमके आयतन जे तीर्थंकर बड़े मुनि तथा तिनकरि पवित्र भये ऐसे
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