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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय || पान ६८७ ॥
याका विशेष ऐसा, जो, अन्यमती केई मनके विकार मेटने कूं असमर्थ हैं । तिस विकारपूर्वक बाह्य के विकार छिपावनेकूं कोपीन वस्त्र आदिकरि गुह्यप्रदेश ढाकै हैं, तिनके कर्मका संवर न होय है ॥ ६ ॥ संयमी मुनि इन्द्रियनि विषय के संबंधविषै उत्साहरहित हैं । गीत नृत्य वादित्र आदिरहित जे शून्य ठिकाणे गुफा देवमंदिर वृक्षनिके कोटर शिलाआदिविषै स्वाध्यायध्यानकी भावनाविषैही मन लगा हैं । बहुरि देखे सुने भोगये जे रतिके कारण तिनका यादि करणा तिनकी कथा सुनना ऐसे काम बाण तिन करि नाहीं भेदकूं प्राप्त भया है हृदय जिनका, प्राणीनिर्विषै सदा दयासहित वर्तें हैं, ऐसे मुनिकैं अरतिपरीषहका जीतना कहिये । क्षुधाआदिकी बाधा, संयम की रक्षा, इन्द्रि यनिका प्रबलपणा, व्रतका पालनेका भारिकरि गौरवपणा, सर्वकाल प्रमादरहित रहना, देशकी भाषा सिवाय अन्यदेशकी भाषाका न जानना, विषम प्रतिकूल चंचलप्राणी जामें पाईये ऐसा दुर्गम भयानक मार्गविषै विहार करना इत्यादि अरति उपजने के कारण हैं । सो तिनकेविषै धैर्य के बलतें अरति जिनके नाहीं उपजै है, विषयकूं विषके मिले आहारतुल्य जाणें हैं, तिनकै अरतिपरीषहका जीतना है । एक संयमही में जिनके रति है । इहां कोई कहै, जो, ए सर्वही परिषह अर्तिके कारण हैं, तातें अरतिका न्यारा ग्रहण अनर्थक है । ताका समाधान, जो, क्षुधाआदिकी वेदना विनाभी
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