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॥ सर्वार्थसिद्धिवनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६८५ ॥
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जहां, बहुरि नाही है जल जहां, बहुरि सूर्यके किरणनिकरि पड़े हैं पान जिनके ऐसें छायारहित भये हैं वृक्ष जहां, ऐसी जो वनी ताके मध्य अपनी इच्छाकरि जहांतहां तिष्ठे हैं। बहुरि अनशन आदि तप तेही. भये शरीरके अभ्यंतरकारण तिनकरि उपज्या है दाह जिनकै, बहुरि दावानलकी कठोर ताती पवन ताकरि उपज्या है तलमें तथा तालुवामें शोष जिनकै, तिसका इलाजके कारण पहले घणेही भोगे थे तिनकू यादि नाहीं करते प्राणीनिकी पीडाके परिहारविर्षे लगाया है चित्त जिनूनें, तिनकै चारित्र है लक्षण जाका ऐसा उष्णका सहना कहिये है ॥ ४॥ ... देशमशकादिककी बाधातें तिनका इलाज करना, संयमतें परिणाम चिग नाही, सो दंशमशकसहन है । इहां दंशमशकका ग्रहण उपलक्षणस्वरूप है । जैसे काहू, कह्या कागते घृतकी । रक्षा करै । तहां तिस घृतके बिगाडनेवालेनितें सर्वहीतें रक्षा करावै है, ऐसा जानना । एक काकाहीका अर्थ न समझना। तैसें इहां दंशमशकके ग्रहणते माक्षी कोकिल सूवा वालू कीडी पीपल्या उटकण जूं कीडी कीडा वीछू आदिभी ग्रहण करने । इनकी करी बाधा ताकू सहै हैं। तिनकी बाधाकरि मन वचन कायविर्षे विकार न ल्यावै हैं। मोक्षकी प्राप्तिका जो संकल्प तिसमात्रही है शरीरनपरि आवरण जिनकै ऐसे मुनि तिस दंशमशककी वेदना सहे हैं । तिनके दंशमशककी परीषहसहन
समाधान
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