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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६८३ ॥
आहार हेरे हैं, दोषसहित जैसेंतैसें नाहीं ले है । बहुरि निर्दोषआहारका अलाभ होय तथा अंतराया. || दिकके कारणते थोरा मिले तो नाही मिटै है क्षुधाकी वेदना जिनकी । बहुरि अकाल अर अयोग्य
क्षेत्रविर्षे आहार लेनेकी वांछा जिनकै नाहीं है। ऐसा नाही, जो, क्षुधा उपजै तिसही काल आहारकू | दौडै तथा अयोग्यक्षेत्रमेंभी ले ले ऐसें नाहीं करै है । बहुरि आवश्यकक्रियाकू किंचिन्मात्रभी घटावै । | नाहीं। क्षुधाके निमित्त चित्त न लागै तब सामायिकआदि क्रिया जैसेंतेसैं करै ऐसे नाही है। बहुरि स्वाध्याय अर ध्यानकी भावनावि तत्पर रहे हैं। बहुरि बहुतवार आप चलाय करै । तथा | प्रायश्चित्तआदिके निमित्तते करै ऐसें अनशन अवमौदर्य नीरसाहार तप तिनिकरि युक्त है । बहुरि । इन तपनिके निमित्ततें क्षुधा तृषाकी ऐसी दाह उपजै है, जैसे ताते भांडमें पड्या जो जलका बिंदू | | सो तत्काल सूकि जाय तैसें आहार पाणी ले सो तत्काल सूकि जाय है । बहुरि उठी है क्षुधावेदना ! | जिनकै तौऊ भिक्षाका अलाभ होय तौ ताकू लाभतेंभी अधिक मानें है, जो, हमारे यहभी अनश-:
नतप भया सो बडा आनंद भया ऐसैं माने है। क्षुधाका चितवन नाहीं है । धन्य है वे मुनि, | जिनके ऐसे उज्वलपरिणाम हैं। ऐसे मुनिक क्षुधा जतिना सत्यार्थ है ॥ १॥
बहुरि ऐसे मुनिराजकै तृषाका परीषह जतिना होय है, जो जलविर्षे स्नान अवगाहन छिड.
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