________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिदिनचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६९३ ॥
तैसें जिनका शरीर कांतिरहित भया है, चामडी हाड नसा जाल मात्र तनु भया है, मांस सूकि गया है, बहुत कहा कहै? प्राणनिका नाशभी होय तो आहार वसतिका औषधि आदि दीनवचन मुखका विलखावना अंगकी संज्ञा आदिकरि याचते नाहीं हैं, बहुरि भिक्षाके कालविभी लव आहार लेनेकू जाय तब वीजलीके चमत्कारकीज्यों तथा रत्नका व्यापारी रत्न दिखाय दे तेसैं दर्शन दे फिरि जाय हैं- ताहूंकू दीनता माने, अदीनता तो ऐसे माने है जैसे कोई नमस्कार करे ताकू अपना हाथ पसारी आशीष दे सो अदीनता है, ऐसे मुनिके याचनापरिषहका सहना, निश्चय कीजिये । अवार कालविर्षे दीन अनाथ पाखंडी भेखी बहुत भये हैं। कैसे हैं? नाहीं
जान्या है आत्माका तथा मोक्षमार्गका स्वरूप जानें, याचनाकरि उदरपूरण करे हैं, अर कहै हैं। | हम सुमार्गमें प्रवर्ते हैं। सो यह कालदोष है ॥ १४ ॥
भोजनका अलाभविषे लाभकीज्यों संतुष्ट रहै, सो अलाभपरीषहका जीतना है। तहां कैसे ६ हैं मुनि? पवनकीज्यों अनेकदेशनिमें विचरनहारे हैं। बहुरि अंगीकार कीया है एककालविर्षे all भोजन ज्यां । बहुरि मौनी हैं मुखतें कछू कहैं नाहीं गूंगेसमान विचरे हैं । बहुरि आहारकू नग
रमें जाय तब शरीरके दर्शनमात्र दिखाय फिरि आवे हैं । बहुरि हस्तपुटमात्रही है पात्र जिनकै,
For Private and Personal Use Only