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॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। नवम अध्याय ॥ पान ६७७ ॥ पीवना विचारना भूलि जाय व्याधपास आवै, तब पकड़े, कष्टके समुद्रमें डारि प्राण ले । तैसें अन्यभी प्राणी इन इन्द्रियनिके वशीभूत भये या लोकमें अनेक दुःख अर परलोकमें दुर्गति पावै हैं ।।
बहुरि तैसेही कषाय आदिभी इस लोकविर्षे वध बंधन महान क्लेश उपजावै है। परलोकविर्षे अनेक दुःखनिकरि प्रज्वलित जे नानागति तिनविर्षे भ्रमण करावै है । ऐसें श्रावकके दोष | चितवन करना, सो आश्रवानुप्रेक्षा है। ऐसें चितवतै पुरुषके क्षमादिकवि कल्याणरूपपणाकी | | बुद्धि दूरि न होय है ।। जे आश्रवके दोष कहे ते काछिवाकीज्यों संवररूप कीया है आत्मा | | जाने ताकै नाही होय हैं। जैसें समुद्रविर्षे नावका दोष मूदते सतें वांछित देशकू निरुपद्रवतें | | पहुंचै अर जो छिद्र न मूदिये तो नाव जलतें भरि जाय तब नावमें तिष्ठते पुरुषनिका विनाश | होय, तैसें कर्मका आवनेका द्वारका संवर करते सत कल्याणरूप जो मोक्ष ताका प्रतिबंधक जो
कर्म सो नाहीं आवै है । ऐसें संवरके गुणनिका चिंतवना, सो संवरानुप्रेक्षा है। ऐसें याके | चितवन करनेवालेकै संवरवि नित्य उद्यम प्रवर्ते है । तातें मोक्षपदकी प्राप्ति होय है ।
निर्जरा वेदनाका विपाक है ऐसें कहा था, सो दोयप्रकार है, अबुद्धिपूर्वा कुशलमूला । | तहां नरकआदिके विर्षे जो कर्मका फलका विपाकतें निरंतर स्वयमेव उपजै है, सो तौ अबुद्धिः
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