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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६७६ ॥
आश्रव संवर निर्जरा पहले कहेही थे। ते इहांभी कहै हैं। सो इनतें उपजै गुण तिनके दोष चितवनके अर्थि कहै हैं। सोही कहिये है । ए आश्रव हैं ते इसलोक अर परलोकविर्षे नाश अर दुर्गतिके कारण हैं । महानदीके प्रवाहकी वेगकीज्यों महातीखण हैं । ते इन्द्रिय कषाय अव्रत आदिक हैं। तहां प्रथम तौ इन्द्रिय स्पर्शन आदिक हैं । ते जीवनिकू कष्टरूप समुद्रमें पटके हैं। देखो ! स्पर्शन इन्द्रियके वशीभूत भया वनका हस्ती बहुत बलवान है, तौऊ मदकरि आंघा कपटकी हथिणीसं सांचीके भ्रमते खंधकमें आय पडै! तब मनुष्यके वाशि होय बंधन वहन अंकुशका घात आदि तीव्रदःखकू सहै है। अपने यूथमें स्वच्छंद विहारकं अपने वनवासकं सदा यादि । करता खेदकुं प्राप्त होय है ।। बहुरि जिह्वा इन्द्रियके वशीभूत हूवा कामला मूये हस्तीके शरीरके | उपरि तिष्ठै था, सो नदीके प्रवाहमें हस्ती चल्या तब काकभी चल्या समुद्र में जाय पड्या! तहां |
उडिकरि निकलनेकू समर्थ न भया, तहांही कष्टकरि मूवा! तैसेंही मांसके रसके लोभी जालमें पडि मरै है ॥ बहुरि घाणइन्द्रियके वशीभूत सर्प औषधिकी सुगंधतें कष्टके स्थानक जाय पडे है । तथा
भौरा कमलमें दबि मरै है ॥ बहुरि नेत्रइन्द्रियनिके वशीभूत हूवा पतंग जीव दीपगकी लोय उपरि या पडि मरे है । बहुरि श्रोत्रइन्द्रियके वशीभूत हूवा हरिण वधिकके गानकी ध्वनि सुनिकरि खाना
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