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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६५३ ॥
याका अर्थ - ईर्ष्या भाषा एषणा आदाननिक्षेप उत्सर्ग ए पांच समिति हैं, ते संवरके कारण हैं । इहां सम्यक्पदकी अनुवृत्ति लेणी, यातें सम्यक्ईर्या इत्यादि पांचनिकै लगाय लेणी । तहां जान्या है जीवन के स्थान योनि आदिक भेदकी विधि जानें ऐसा जो मुनि ताके यत्नतैं चलना, यत्नतें बोलना, यत्नतें शुद्ध निर्दोष आहार लेणा, यत्नतें उपकरणादि उठावना धरना, यत्नतें मलमूत्र आदि क्षेपणा ऐसें प्रवृत्तिरूप पांच समिति हैं, ते प्राणिनिकी पीडाका परिहार के अर्थ होय हैं । ऐसें प्रवर्ते अन्यप्राणीनिकूं बाधा नाहीं होय है । तथा सम्यक् प्रवर्तमानके असंयमपरिणाम के निमित्ततें कर्म आश्रवरूप होय थे तिसका अभाव होय है तब संवर होय है |
विशेषविधि लिखिये है । तहां मुनि जीवस्थाननिके जाननहारे हैं । ते जीवस्थान संक्षेपकरि चौदह हैं । एकेन्द्रिय सूक्ष्मवादरकरि दोयप्रकार बेन्द्रिय, त्रींद्रिय, चौइन्द्रिय ए विकलत्रय कहिये । बहुरि पंचइंद्रिय संज्ञी असंज्ञी दोय भेद ऐसें सात भये । ते पर्याप्त अपर्याप्त भेदकर चौदह होय हैं । बहुरि इनके उपजनेके ठिकाणेकं योनि मुनि तिनकी रक्षानिमित्त समितिरूप नेत्रनितें जूडा प्रमाण भूमिकूं नीकें
बहुरि अय्याण कहे हैं । कहिये । तथा कुलनिके प्रर्तें हैं । तहां गमन करें
बहुरि च्यारिसे छह कहे हैं । भेद अनेक हैं । तिनकूं जानि तब सूर्यके उदयका प्रकाशविषै
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