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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६७३ ॥
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वनस्पति सूक्ष्म बादर पर्याप्त अपर्याप्तकरि च्यारि हैं। बहुरि बेइन्द्रिय तेइन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पर्याप्त अपर्याप्तकरि छह । बहुरि पंचेन्द्रिय संज्ञी असंज्ञी पर्याप्त अपर्याप्तककरि च्यारि ऐसै बत्तीस भये । । बहुरि भावनिमित्तक संसार दोयप्रकार है, स्वभाव परभाव । तहां मिथ्यादर्शनादिक अपने भाव | सो स्वभाव है । बहुरि ज्ञानावरणआदि कर्मका रस, सो परभाव है । ऐसा संक्षेप जानना ॥
जन्म जरा मरणकी आवृत्तिके महादुःखके भोगनेकू में एकही हों, मेरै कोई मेरा नाही, | तथा मेरै कोई पर नाही, में एकही जन्म हौं, एकही मरूं हों, मेरे कोई स्वजन नाही, तथा मेरे | कोई परिजन नाही, जो मेरा व्याधि जरा मरण आदिकू मेटै । बंधु मित्र हैं ते मेरे मरणपीछे मसाणताई जाय हैं। आगे जाय नाहीं। मेरै धर्मही सहाय है, सो सदा अविनाशी है । ऐसें | चिंतवन करना सो एकत्वानुप्रेक्षा है ॥ ऐसें याकू भावनेवाला पुरुषकै स्वजनके विषे तो राग | नाहीं उपजे है। परजनके वि द्वेष नाहीं उपजै है । तब निःसंगताकू प्राप्त भया मोक्षहीके अर्थि यत्न करै है ॥
शरीरआदिका अन्यपणाका चिंतवन, सो अन्यत्वानुप्रेक्षा है। सोही कहिये हैं। बंधक | अपेक्षा शरीर आत्माकै एकपणां है । तोऊ उपलक्षणके भेदतें भेद है। तातें में शरीतें अन्य हों।
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