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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६७१ ॥
जा है, तथा स्वामी होय करि चाकर होय जाय है, दास होयकरि स्वामी होय जाय है । जैसें न अनेक स्वांग धरि नाचे है, तैसें अनेक पर्याय धरि भ्रम है । बहुरि बहुत कहा कहै ? आपही आपके पुत्र होय जाय है । इत्यादिक संसारका स्वभाव चितवन करना, सो संसारानुप्रेक्षा है । ऐसें याकूं चिंतन करते पुरुषके संसारके दुःखके भयतें उद्वेग होयकरि वैराग्यभाव होय है । तब संसारके नाश करनेकूं यत्न करें है । ऐसें संसारानुप्रेक्षा है । इस संसारभावना में ऐसा विशेष जाननां, आत्माकी च्यारि अवस्था हैं; संसार, असंसार, नोसंसार, तत्रितयव्यपेत ऐसें । तहां च्यारिगतिविषै अनेकयोनिमें भ्रमण करना, सो तौ संसार कहिये । बहुरि च्यारि गतितैं रहित होय फेरि न आवना मुक्त होना, सो असंसार है । तहां शिवपदविषै परमआनंद अमृतरूपविषें लीन है | बहुरि सयोगकेवली नोसंसार कहिये, जातें चतुर्गतिभ्रमणका तौ अभाव भया अर मुक्त भये नाहीं, प्रदेशनिका चलना पाईये है, तातें ईषत्संसार है, ताकूं नोसंसार कहिये । बहुरि अयोगकेवली चऊदमां गुणस्थानवालेकें तत्रितयव्यपेत है । जातैं चतुर्गतिका भ्रमण नाहीं अर मुक्त भये नाहीं, तातैं असंसारभी नाहीं अर प्रदेशनिका चलना नाहीं, तातैं नोसंसारमी नाहीं, तातें तीनहू अवस्था जुदीही अवस्था है, ताकूं तत्रितयव्यपेत ऐसा नाम कह्या । सो यह संसार अभव्यकी
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