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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६६९ ॥ अनित्यपणा है । तहां आत्मा रागादिरूप परिणामकरि कर्मनोकर्मभावकरि ग्रहे जे पुद्गलद्रव्य, ते तो उपात्त कहिये । अर जे परमाणुआदि बाह्यद्रव्य हैं, ते अनुपात्त हैं । तिन सर्वनिके द्रव्यस्वरूप | तौ नित्यपणा है । बहुरि पर्यायस्वरूपकरि संयोगवियोगरूप है । तातें अनित्यपणा है । तातें यह शरीर इंद्रियनिके विषयरूप उपभोग परिभोग द्रव्य हैं ते समुदायरूप भये जलके बुदेबुदेकीज्यों अनवस्थितस्वभाव हैं । गर्भकं आदि लेकरि जे अवस्थाके विशेष तिनविर्षे सदा संयोग वियोग | जिनमें पाईये हैं । इनविर्षे ज्ञानी जीव मोहके उदयके वशते नित्यपणा माने है। संसारविर्षे किछुभी ध्रुव नाहीं है। आत्माका ज्ञानदर्शनरूप उपयोगस्वभाव है, सोही ध्रुव है। ऐसे चितवन करना, सो अनित्यानुपेक्षा है। याप्रकार याके चितवन करनेवाले भव्यजीवकै शरीरादिकविर्षे प्रीतिका अभावतें जैसें भोगकरि छोड़े भोजन गंधमाला आदिक तिनकीज्यों वियोगकालविभी शोकआदि न उपजै है।
या संसारविर्षे जन्म जरा मरण व्याधि मृत्यु आदि कष्ट आपदासहित भ्रमता जो यह | जीव ताके कोईभी शरण नाहीं है । जैसें मृगका बच्चाकू एकान्त उद्यानविर्षे भुंखा मांसका इच्छक | बलवान वघेराने पकड्या ताळू किछूभी शरण नाही; तैसें । बहुरि यह शरीर है ताकू नीकें पोषिये
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