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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६६७॥
बहुरि संयम आत्माका हित है । जाके संयम होय, सो लोककरि पूज्य होय परलोककी। कहा कहणी ? असंयमी प्राणीनिके घात विषयनिके रागकरि अशुभकर्म बांधै । ऐसें संयमके गुण | असंयमके दोष हैं ॥ बहुरि तप है सो सर्वप्रयोजनकी सिद्धि करनहारा है । तपहीतें ऋद्धि उपजै है। तपस्वीनिके रहने के क्षेत्रभी तीर्थ होय हैं । जाकै तप नाहीं सो तृणतभी छोटा है । जाळू सर्व है गुण छोडि दे है । तपविना संसारतेंभी नाही छूटै है । ऐसें तपके गुण तपरहितविर्षे दोष हैं ॥ परिग्र हका साग दान है । सो पुरुषका हित है । परिग्रहका त्यागवाला सदा निर्वेद रहै है। मन जाका | उज्वल रहै है । पुण्यका निधान है । परिग्रहकी आशा है सो बलवान है, सर्वदोष उपजनेकी खानि | है, जातें तृप्ति नाहीं होय है । जैसें समुद्र जलते तृप्त नाही होय, तैसें तृप्त नाहीं । इस आशारूपी | है खाडाकू कौन भरि सकै ? जामें सर्व वस्तु क्षेपिये तौऊ रीतीही रहै । ऐसें त्यागके गुण तृष्णाके दोष || हैं । बहुरि जाके शरीर आदिकें विर्षे ममत्व नाहीं होय सो परमसुखकू पावै है । जाकै ममत्व होय || सो सदा शरीरसंबंधी दुःखकू भोगवै है । ऐसे आकिंचन्यके गुण ममत्वके दोष हैं ॥ बहुरि ब्रह्मचर्य |
पालै ताकै हिंसादिदोष न लागै हैं। सर्व गुणसंपदा जामें वसै है । बहुरि जो स्रीअभिलाषी है ताहि || || सर्व आपदा आय लागें हैं । ऐसे ब्रह्मचर्यके गुण हैं अब्रह्मके दोष हैं ।
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