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॥ सर्वार्थसिद्धिवनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥पान ६७० ॥
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है तोऊ भोजन करतेताई सहाई है, कष्ट आये किछुभी सहाई नाही है । बहुरि बहुत यत्नकरि | संचय कीये जे धन तेभी भवांतरमें लार न जाय हैं। बहुरि जिनतें सुख दुःख वांटिकरि भोगिये
ऐसे मित्र हैं तेभी मरणकालविर्षे रक्षा नाहीं करै हैं। बहुरि रोगकरि व्याप्त होय तब कुटुंबके भले होय तेभी प्रतिपाल नाहीं करि सके हैं। जो भलेप्रकार धर्मका आचरण कीया होय तो यह धर्म अविनाशी है सो संसारके कष्टरूपी समुद्रविर्षे तरणेका उपाय है। यह प्राणी कालकरि ग्रहण कीया होय तब इंद्रआदिकभी शरण न होय हैं। तातें कष्टविर्षे धर्मही शरण है, यहही धन है । कैसा है ? अविनाशी है । और किछुभी शरण नाही है । ऐसें चिंतवन करना सो अशरणानुप्रेक्षा | है । याकू ऐसे चिंतवनमें सदा अशरण हूं ऐसे संसारतें विरक्त होनेते संसारसंबंधी वस्तुनिविर्षे ममत्वका अभाव होय है । भगवान अरहंत सर्वज्ञप्रणीत मार्गविर्षेही यत्न होय है ।
कर्मके उदयके वश” आत्माकै भवांतरकी प्राप्ति सो संसार है । सो पहले पांच परिवर्तनरूप व्याख्यान कीयाही था । तिसविर्षे अनेक योनि कुलकोटि लाखनिके बहुत संकट पाईये हैं। ऐसे संसारविर्षे भ्रमण करता तो यह जीव कर्मरूप यंत्रका प्रेस्सा पिता होयकरि भाई होय है, तथा पुत्र होय है, तथा पिता होय है, माता होयकरि बहिन होय है, तथा स्त्री होय है, तथा पुत्री होय ।
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