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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६६६ ॥ करै, यह प्राणघात करै है, धर्मविध्वंस न कीया, यह भलाई भई । बहुरि विचारे, जो, यह मेराही अपराध है, जो, पूर्व कर्म बांधे थे तिनका यह दुर्वचनादिक सुनना फल है, पैला तो निमित्तमात्र है, ऐसा चितवन करना ।
बहुरि जो मार्दवधर्मकरि युक्त होय तापरि गुरु अनुग्रह करै, साधु भला मानें, तब सम्यरज्ञान आदिका पात्र होय तातें स्वर्गमोक्षफलकी प्राप्ति होय यह मार्दवके गुण हैं । अर मानकरि मैला मन होय तामें व्रत शीलआदि गुण न तिष्ठे। साधुपुरुष ताकू छोडि दे। यह मान सर्व आपदाका मूल है। यह मानकषायके दोष है । बहुरि मायाचाररहित सरल हृदय जाका होय ताविर्षे तिष्ठै मायाचारवालेका गुण आश्रय न करै निंद्यगति पावै । ऐसे आर्जवके गुण हैं, मायाके दोष हैं ॥ बहुरि शौचधर्मयुक्त पुरुषका सर्वही सन्मान करै । सर्व विश्वास करै । सर्वगुण जामें तिष्ठै । लोभीके हृदयविर्षे गुण अवकाश न पावै । परलोकमें तथा इसलोकमें बड़ी आपदा पावें । ऐसे शौचके गुण लोभके दोष हैं ॥ बहुरि सत्यवचन कहनेवालेविर्षे सर्व गुण तिष्ठे सर्व संपदा तिष्ठे
झूठ बोलै ताकी बंधुजनभी अवज्ञा करै । मित्रभी ताकू छोडि दें। जीभ छेदन सर्वस्वहरण आदि | आपदा पावै । ए सत्यके गुण असत्यके दोष हैं।
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