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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६६३ ॥
• जानें ऐसा जो मुनि सो जविनिकूं देखिकरि क्षेपण करै सो प्रतिष्ठापनशुद्धि है | बहुरि स्त्री क्षुद्रजन चोर वधिक कहिये शिकारी तथा शाकुनिक कहिये पक्षीनिके मारनेवाले इत्यादिक पापी जन जहां • वसते होंय तथा शृंगारके विकारसहित भूषणानिकरि उज्वल वेशसहित वेश्यादिक जहां क्रीडा करे आवै जाय तथा गीत वादित्र नृत्य करे ऐसे स्थानकनिविषै मुनि शयन आसन करें नाहीं, अकृत्रिम - गिरिकी गुफा वृक्षनिके कोटर तथा कृत्रिम सूंना घर जाकूं लोकान छोडि दिया होय ऐसे स्थानक जे आपके उपदेश बणे नाहीं आरंभरहित तहां सोवै बैठे, सो शयनासनशुद्धि है | बहुरि पृथ्वी आरंभ आदिकी जायें प्रेरणा नाहीं और कठोर निर्लज आदि परकूं जातें पीडा होय ऐसा नाहीं अर व्रत शील आदिका उपदेश आदिकी जामें प्रधानता होय अर हितरूप मर्यादसहित मीठा मान आदरकरि सहित संयमीनिके योग्य ऐसा वचन प्रवर्ते, सो वाक्यशुद्धि है । याके आश्रय • सर्वसंपदा है । ऐसें संयमधर्म कह्या ॥
बहुरि कर्म के क्षय के अर्थ जो तप ले सो तप है । सो बारहप्रकार है सो आगें कहेंगे । बहुरि संयमीनिके योग्य ज्ञान आदिक देना सो त्याग है । बहुरि शररिआदि परिग्रह विद्यमान रहै हैं निविभी मेरा यऊ है ऐसा ममत्वभावका अभिप्राय नाहीं होय, सो आकिंचन्य है । नाहीं
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