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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६६२ ॥
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ఆరుంగులకలంరకుడవకుండకుడదండనకు
अनेकदेशमें घासका तृण होय तिनकू जैमैं मुखमें आवै तैसें चरनेहीकी दृष्टि रहै , देनेवालेकी संपदाकी तरफ न देखे; तैसेंही मुनिभी आहार देनेवालाका रूपआदिकी तरफ न देखें तथा सूखा आला रूक्ष सचिकण आहारकी तरफ न देखै, जैसा पावै तैसा खाय, ताका गोचरी ऐसा नाम है । तथा गवेषणाभी याहीका नाम है ॥ बहुरि जैसे रतनके भारकरि भन्या गाडा होय ताकू जैसेंतैसें। घृतकरि अक्ष कहिये धुरी ताकू वांगिकरि अपने वांछितदेशांतरकू व्योपारी ले जाय है, तैसैं मुनिभी शरीररूप गाड्या भरि गुणरूप रत्ननिकरि भखा है, ताकू निर्दोष आहार देय कायरूप अक्षको | लेयकरि अपने वांछित जो समाधिरूप नगर तहां पहुंचावै है, याका अक्षमृक्षण नाम है । बहुरि से जैसैं भंडारमें अमि लागे ताकू भंडारका धणी जैसे तैसें जलते बुझाय अपना धन राखै, तैसें मुनिभी शरीरकू उदरामि बुझाय अपना गुणरत्न राखै है, याका उदरामिप्रशमन नाम है ॥ | बहुरि दातारकू बाधाविना प्रवीण मुनि भ्रमरकीज्यों जैसे भ्रमर पुष्पकू बाधा न करै तैसें आहार ले सो भ्रमराहार नाम है ॥ बहुरि जैसे खाडाकू जैसे तैसें कंजोडकरि भरिये है तैसें मुनिभी उदररूप खाडाकू सुखाद दुःस्वाद आहारकरि पूरण करै है, ताका गर्तपूरण नाम है ॥
बहुरि नख रोम कफ थूक मल मूत्रका क्षेपण तथा देह छोडना इनकू करते जाण्या है देश में
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