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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६६०॥
ఆడదండలం దుండగులు
सहित होय जामें, कछू विकार न होय, यत्नरूप है प्रवृत्ति जाकी, मूर्तिमान शांतिरूप सुखकू दिखावती ऐसी कायकी शुद्धि है । याके होतें आपकें तथा आपकरि परकें भय नाहीं उपजै है ॥
बहुरि अरहंत आदि जे परमगुरु तिनविर्षे तौ जहां यथायोग्य पूजा प्रवर्ते, बहुरि ज्ञानआदिके विर्षे यथाविधान भक्तिसहित होय, गुरुनिके अनुकूल जामें प्रवृत्ति सदा रहे, प्रश्न स्वाध्याय वाचना कथा विज्ञान आदिकी प्रवृत्तिके विर्षे कारणरूप होय, देश काल भावका जाननेविर्षे जहां प्रवीणता होय, आचार्यनिके अनुसार जहां प्रवर्तना होय सो विनयशुद्धि है । यऊ पुरुषका भूषण है, याने पुरुष सोहै है, बहुरि संसारसमुद्रके तरवेविर्षे यह नावतुल्य है । बहुरि जो नाना. प्रकारके जीवनिके स्थान योनि आश्रय इनका ज्ञानकरि उपज्या जो यत्न ताकरि परिहरी है जीवनिकी पीडा जामें, बहुरि अपना ज्ञानसूर्यके प्रकाश नेत्रादिककरि देख्या जो क्षेत्र ताविर्षे है जामें गमन होय , बहुरि अतिशीघ्र, तथा अतिमंद, तथा शरीरकू भ्रमाय करि, तथा विस्मयकरि, तथा क्रीडारूप , तथा विकारसहित, तथा दशदिशाका अवलोकनआदि दोषनिकरि रहित है गमन जामें ऐसी ईर्यापथशुद्धि है । याकें होतें संयम प्रतिष्ठा पावै है। जैसैं न्यायमार्ग चलते संपदा प्रतिष्ठा पावै, तैसें ॥
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