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॥सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६५८ ॥
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नीरोग रहनेका लोभ, इन्द्रिय बणी रहनेका लोभ, उपभोगवस्तुका लोभ ऐसें । सो यहभी अपना अर परका ऐसें च्यारिनिपरि दोयदोय प्रकार जानि लेना । ऐसें लोभका अभाव शौचमें जानना । बहुरि दिगंबर यति अर तिनके भक्त श्रावक आदि तिनविर्षे समीचीन वचन बोलना सो सत्य है ।।
इहां कोई कहै, यह तो भाषासमितिही है । ताकू कहिये, समितिविर्षे तो सर्वही लोकतें बोलनेका कार्य होय । तब हित मित वचन कहै । जो औरप्रकार वचन बोलै तौ राग अनर्थदंड आदि दोष उपजै । बहुरि सत्यधर्मवि मुनिश्रावकनिहीते शास्त्रज्ञान सीखने आदिका कार्यनिमित्त बहुतभी परस्पर आलाप होय है । तामें दशप्रकार सत्य कहा है ताकी प्रवृत्ति होय है ऐसा भेद है । तिनके नाम जनपद, सम्मित, स्थापना, नाम, रूप, प्रतीत्य, व्यवहार, संभावना, द्रव्य, भाव ऐसे हैं । इनका स्वरूप उदाहरणसहित गोमटसारतें योगमार्गणामें जानना है । बहुरि समितिविर्षे प्रवर्तते जे मुनि तिनकै समितिकी रक्षाके अर्थि प्राणीनिकी रक्षा अर इन्द्रियनिकी रागसाहित विषयनिका परि- | हार, सो संयम है । ताका दोय भेद, अपहृतसंयम उपेक्षासंयम । तहां अपहृतसंयम उत्कृष्ट मध्यम | | जघन्य भेदकरि तीनिप्रकार । तहां प्रासुक वसतिका आहार आदिमात्र है बाह्यसाधन जिनकै बहुरि | | स्वाधीन हैं ज्ञानचारित्रकी प्रवृत्ति जिनकै तिनकै गमन आसन शयनादि क्रियाविर्षे जीव आय |
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