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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६५२ ॥
उपजै ऐसा जो कायआदियोगका निरोध ताके होतें जो योगनिकी स्वेच्छा प्रवृत्तितें कर्मका
श्रव होय था ताका संवर होय है ऐसा प्रगट निश्चय करना । सो यऊ गुप्ति तीनिप्रकार है, काय गुप्ति, वचनगुप्ति, मनोगुप्ति ऐसें । इहां विशेष, इहां सम्यक् विशेषणका तौ यह विशेष, जो, गुप्तिका सत्कार न चाहै, बहुरि लोकतें पूजा न चाहे, यहू महामुनि वडे ध्यानी ऐसी लोक विष प्रसिद्धता न चाहै, तथा इसलोक परलोक संबंधी विषयअभिलाष न करे ॥
बहुरि कायवचनमनकी स्वेच्छाप्रवृत्तिका विशेष ऐसा, जो, कायकरि भूमिविषै चलना होय तब विनादेख्या विनाप्रतिलेख्या चलै तब कर्मका आश्रव होय । बहुरि वस्तुका उठावणा धरणा होय सो बहुरि बैठना होय सोवना होय तिसके निमित्ततें कर्मका आश्रव होय । बहुरि वचन जैसे तैसें बोले, तथा मनविषै रागद्वेष प्रवर्ते, विषयनिकी वांछा प्रवर्ते, ताके निमित्ततैं कर्म आश्रवै सो महामुनि गुप्तिरूप रहै तिनके ऐसे कर्मका आश्रव रुकै है, तातें संवर होय है ॥
आगे जो मुनि गुप्तिरूप रहनेविषै असमर्थ होय आहारविहार उपदेशादिक्रियाविषै प्रवर्ते, तिनके निर्दोषप्रवृत्ति जैसे होय ताके प्रगट करने कूं सूत्र कहैं हैं
॥ ईर्याभाषैषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ॥ ५ ॥
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