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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६५० ॥
संवर है, ऐसा अधिकार कीया है । बहुरि स ऐसा शब्द है सो गुप्त्यादिक साक्षात् संबंध करनेके अर्थि है । तहां ऐसा नियम जनाया है, सो यह संवर गुप्तिआदिकरिही होय है, अन्य उपायकरि नाहीं होय है । ऐसें कहनेकरि तीर्थनिविर्षे स्नान करना, अतिथिका भेषमात्र दीक्षा लेना, देवताईं आराधना, ताके अर्थि अपना मस्तक काटि चढावना इत्यादि प्रवृत्ति करै यह संवर नाहीं होय है, ऐसा जनाया है । जाते राग द्वेष मोहकरि बांधे जे कर्म, तिनका अन्यप्रकार निवृत्ति होनेका अभावही है ॥ आगे संवरका तथा निर्जराका कारणविशेषके जानने• सूत्र कहै हैं
॥ तपसा निर्जरा च ॥३॥ याका अर्थ- तपकरि निर्जरा होय है, बहुरि चकारतें संवरभी होय है, ऐसा जानना । तहां तप है सो धर्मके भेदनिमें गर्भित है, सोभी न्यारा कह्या है, सो संवर अर निर्जरा दोऊका कारण जनावनेके अर्थि कह्या है अथवा संवरप्रति प्रधानपणा जनावने के अर्थि है । इहां तर्क,
जो, तप तौ देवेन्द्रादिपदवीकी प्राप्तिका कारण मानिये है, याते अभ्युदयका अंग है, सो निर्जगका है | अंग कैसे होय ? ताका समाधान, जो, यह दोष इहां नाहीं है। एक कारणकरि अनेक कार्य |
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