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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६४९ ।।
नाम पावै है। याकी स्थिति पंच लघु अक्षरका उच्चारणमात्र काल है। एते कालमें अघातिकर्मकी सत्तामें प्रकृति रही थी , तिनका क्षयकरि सिद्धगतिकू प्राप्त होय, लोकके शिखिरविर्षे जाय तिष्ठे हैं, ते सिद्ध कहावे हैं । अनंतकाल आत्मिक आनंदमें लीन रहै हैं । फेरि संसारमें जिनका आगमन नाहीं । ऐसें गुणस्थाननिकी प्रवृत्ति जाननी । विशेष जान्या चाहै सो गोमटसारग्रंथतें जानूं ॥ आगें, यह संवर कह्या, ताका कारणके कहनेकू सूत्र कहै हैं
॥स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः ॥२॥ याका अर्थ- कह्या जो संवर, सो गुप्ति समिति धर्म अनुप्रेक्षा परीषहजय चारित्र इन छह भावनिकरि होय है । तहां संसारके कारण जे प्रवृत्तिभाव तिनतें आत्माकू गोपै राखे तिनकी प्रवृत्ति रूप न होने दे, सो गुप्ति है । बहुरि प्राणीनिकी पीडाके परिहारके अर्थि भलेप्रकार प्रवृत्ति करना, सो समिति है । बहुरि अपना इष्टस्थान जो सुखका स्थान तामें धरै सो धर्म है । बहुरि शरीरआदिका स्वभावका बारबार चितवन करना, सो अनुप्रेक्षा है । बहुरि क्षुधाआदिकी वेदना उपजै ताकू
कर्मकी निर्जरार्थि सहै सो परिषह है, तिनका जीतना सो परिषहजय है । बहुरि चारित्रशद्धका | अर्थ आदिसूत्रमें कह्या है । ऐसें ए गुप्तिआदिक हैं तिनके संवरणक्रियाका साधकतमपणातें करणरूप
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