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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । नवम अध्याय ॥ पान ६५५ ।।
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घृतादिका वांगकीज्यौं आहार दे है । बहुरि उदरअमिरूप दाहका रोग ताके वुझावनेकू औषधीकीज्यों बुरी भलीका स्वाद न लेते देशकालसामर्थ्यकू जाणि पवित्र आहार ले हैं । तामें उद्गम उत्पादन एषणा प्रमाण अंगार धूम आदि भेदसहित छियालीस दोष टलें नवकोटि शुद्ध आहार करें । छियालीस दोष बतीस अंतराय चौदह मल आदिका वर्णन आचार वृत्तिग्रंथके पिंडशुद्धिअधिकारमें है, तहांतें जानना । ऐसा ऐषणासमितिका विशेष है। बहुरि आदाननिक्षेपण उत्सर्ग समिति पूर्व कहीही है ॥
इहां कोई कहै, यह समिति तौ वचनकायकी गुप्ति है । ताडूं कहिये, ऐसा नाहीं । गुप्तिविर्षे तौ कालकी मर्यादा करि सर्वक्रियाकी निवृत्ति करै है । बहुरि समितिविर्षे कल्याणरूप कार्यनिविर्षे प्रवृत्ति होय है । बहुरि इहां कोई कहै, मुनि पात्रविना हस्तविर्षे ले आहार करे हैं तहां आहार गिर पडै तामें जीवहिंसा दीखे है, तहां एषणासमितिका अभावतै संवरकाभी | अभाव आवे है । ताका समाधान, जो, पात्र राखै तो परिग्रहका दोष आवै है। तिसकी || रक्षा करनी पड़े है । अर कपाल आदि लिये फिरै तौ यामें दीनता आवे है । भाजन गृहस्थतें मांगे तो मिले न मिलै । बहुरि ताके प्रक्षालनके आदिके विधानमें बडा आरंभ है। बहुरि |
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