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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६४८ ॥
होय सो सातिशय अप्रमत्त होय, अधःकरणपरिणाममें तिष्ठ, समयसमय अनंतगुणी विशुद्धताकरि वर्द्धमान होय, बहुरि विशुद्धता वधतें वधते अपूर्वकरणपरिणाम होय, तब आठमां गुणस्थान नाम पावै । बहुरि अनिवृत्तिकरणपरिणाम होय तब नवमां अनिवृत्तिबादरसांपराय गुणस्थान नाम पावै । बहुरि कषाय घटतें घटते सूक्ष्मरूप होय जाय, तब सूक्ष्मसांपराय दशमा गुणस्थान नाम पावै । बहुरि समस्तकषायनिका उपशम होय जाय, तब उपशांतमोह ग्यारहमां गुणस्थान नाम पावै । इहां यथाख्यातसंयम होय है। बहुरि समस्त मोहकर्मका सत्तामैसू नाश होय जाय तब क्षीणमोह नाम पावै । ऐसें ये श्रेणीके गुणस्थान हैं । इनमें शुक्लध्यानकी प्रवृत्ति है ।।
बारमांकी आदिताई तो पहला पाया प्रवर्ते है । बहुरि बारहां गुणस्थानकै अंत एकत्ववितर्कवीचार ध्यान होय है। ताके अनंतरही घातिकर्मका नाश करि केवलज्ञान उपजावै है। इन श्रेणीका गुणस्थाननिका काल अंतर्महर्तका है। क्षपक श्रेणी चढनेवाला अंतर्मुहूर्तमें केवलज्ञान उपजावै है । उपशमश्रेणी चढनेवाला उलटा नीचा उतरि जाय है । बहुरि केवलज्ञान उपजै तब जेते
योगनि की प्रवृत्ति रहै जेतें तो सयोगकेवली नाम तैरहा गुणस्थान है । याका काल उत्कृष्ट आठ वर्ष है| घाटि कोटिपूर्वका है। बहुरि जब योगनिकी प्रवृत्ति मिटै तब अयोगकेवली चौदहमा गुणस्थान |
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