________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ४८६ ॥
बहुरि परके करने योग्य क्रिया आप करै सो स्वहस्तक्रिया || १ || पापका जाकरि आदानग्रहण होय इत्यादिक प्रवृत्तिका विशेषका भला जानना, सो निसर्गक्रिया है || २ || परका आचखा जो सावद्य कहिये पापसहितकार्य आदिकका प्रगट करना, सो विदारणक्रिया ॥ ३ ॥ जैसें अरहंतकी आज्ञा है, तैसैं आवश्यक आदिकी प्रवृत्ति चारित्रमोहके उदय आपसूं करी न जाय ताका अन्यथा प्ररूपण करै, सो आज्ञाव्यापादिकी क्रिया है ॥ ४ ॥ साग्र कहिये कपट तथा आलस्य करि शास्त्रोक्तविधान करने के विषै अनादर करना, सो अनाकांक्षाक्रिया है || ५ || ऐसें ए पांच क्रिया भई ॥
बहुरि छेदन भेदन बिगाडना आदि क्रियाविषै तत्परपणा तथा अन्यपुरुष आरंभ करै तहां आपके हर्ष होय, सो प्रारंभक्रिया है ॥ १ ॥ परिग्रहकी रक्षाके अर्थ प्रवर्त्तना, सो पारिग्राहिकी क्रिया है ॥ २ ॥ ज्ञानदर्शन आदिविषै कपटरूप प्रवर्तना ठगने के उपाय, सो मायाक्रिया है ॥ ३ ॥ अन्य मिथ्यादृष्टिपुरुष मिथ्यात्व के कार्यविषै प्रवर्ते है, ताकूं प्रशंसाकरि गाढा करै जैसे तू भलै करै है इत्यादिक कहना, सो मिथ्यादर्शनक्रिया है ॥ ४ ॥ संयमके घातककर्मके उदयके वशर्तें अत्यागरूप प्रवर्तना, सो अप्रत्याख्यानक्रिया है ॥ ५ ॥ ऐसें ए पांचक्रिया भई ए सर्व मिलि पचीस क्रिया भई || एक इन्द्रियकूं आदि देकर हैं, ते कार्यकारणके भेदतें भेदरूप भये संते सांपरायिककर्मके आश्रवके द्वार हो हैं ॥
For Private and Personal Use Only
sex