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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ६०३ ॥ हैं । कषायनिमित्ततें स्थिति अनुभव बंध होय हैं। तिन योगकषायनिके हीनाधिक होनेते तिस बंधकाभी विचित्रपणा होय है । इहां उक्तं च गाथा है, ताका अर्थ- आत्मा जोगते प्रकृति प्रदेश बंध करै है, अरु स्थिति अनुभाग कषायतें करै है । बहुरि योग कषायरूप न परिणमे तथा तेऊ छिन्न होय जाय नष्ट होय जाय तब बंध स्थितिके कारण आत्माके नाही हैं। आगे आदिका जो प्रकृतिबंध ताका भेद दिखावनेके अर्थि सूत्र कहै हैं
॥ आद्यो ज्ञानदर्शनावणवेदनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः ॥४॥ याका अर्थ- ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय मोहनीय आयु नाम गोत्र अंतराय ए आठ कर्मकी मूलप्रकृति हैं । तहां आद्य कहिये प्रकृतिबंध सो ज्ञानावरण आदि आठ भेदरूप जानना । तहां जो आवरण करै तथा जाकरि आवरण होय सो आवरण कहिये । सो न्यारान्यारा जोडिये | ज्ञानावरण दर्शनावरण ऐसें । बहुरि जो वेदना करावै अथवा जाकरि वेदना होय, सो वेदनीय है। बहुरि जो मूढ करै भुलावै अथवा जाकरि मूढ हूजे भूलिजे सो मोहनीय है । बहुरि जाकरि नारकआदि भव प्राप्त करिये अथवा जो भवन प्राप्त करै, सो आयु है । बहुरि जो आत्माका नाम करै तथा जाकरि नाम कीजिये, सो नाम है । बहुरि जाकरि ऊंचा नीचा कहिये, सो गोत्र है । बहुरि
ఆడతనయుడు కుండకుండisedులనుండును
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