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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय । पान ६१३ ॥
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बहुरि चारित्रमोहनीयके दोय भेद अकषायवेदनीय कषायवेदनीय । तहां ईषत् किंचित् कषायकू अकषाय कहिये, इहां अकार निषेधवाचक न लेणा ईषत् अर्थ लेणा । सो याके नव भेद हैं, | हास्यादिके भेदतें । तहां जाके उदयतें हास्य प्रगट होय, सो हास्य कहिये । बहुरि जाके उदयतें किछु वस्तुसूं आसक्त होना सो रति है । बहुरि रतिते विपरीत किछु न सुहावै सो अरति है । बहुरि | जाके उदयतें इष्टका वियोगकरि परिणाम खेदरूप होय सोच करै रुदनादिक करै, सो शोक है । बहुरि जाके उदयतें दुःखकारी पदार्थ देखि उद्वेग करना डरपना भागना सो भय है । बहुरि जाके उदयतें अपना दोष तौ संकोचना परका दोष देखि परिणाम मलिन करना सो जुगुप्सा है। बहुरि | जाके उदयतें स्त्रीसंबंधी भाव पावै सो स्त्रीवेद है । जाके उदयतें पुरुषसंबंधी भावनिकू पावै, सो पुरुषवेद है । जाके उदय नपुंसकसंबंधी भावनिकू पावै, सो नपुंसकवेद है । बहुरि कषायवेदनीय सोलहप्रकार है । तहां अनंतानुबंधी क्रोध मान माया लोभ ए च्यारि, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ ए च्यारि, प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ ए च्यारि, संज्वलन क्रोध मान माया लोभ ए च्यारि ऐसे सोलह भई ।। ___ तहां अनंत नाम मिथ्यात्वका है, जातें यह मिथ्यात्व अनंतसंसारका कारण है, तिस
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