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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ६३७ ॥ नीचगोत्र ऐसे ब्यालीस प्रकृति पापकर्मकी हैं। ऐसे पुण्यपापप्रकृति सर्व मिलि एकसौ चौंतीस भई , सो यह कथन बंधअपेक्षा जानना। बंधप्रकृति एकसौ वीस कही हैं । तहां दर्शनमोहकी तीनि प्रकृतिमें बंध एक मिथ्यात्वहीका है । पीछ तीनि होय हैं, तातें दोय तो एक घटी । बहुरि बंधन संघात शरीरतें अविनाभावी है, तातें शरीरहीमें अंतर्भूत कीये, तातें दश ए घटी । बहुरि वर्णादिक वीस हैं । तिनकू संक्षेपकरि च्यारिही कहे, तातें सोलह ए घटी । ऐसें अठाईस घटनेतें एकसो वीस रही । सो इहां वर्णआदि च्यारि पुण्यरूपभी हैं पापरूपभी हैं। तातें दोयवार गिणते च्यारि बधी हैं । बहुरि इनहीको सत्ताकी अपेक्षा गिणिये तब वर्णादिक वीस दुहार गिणतें एकसौ अठसठि प्रकृति होय । तामें पुण्यप्रकृति तौ अठसठि होय हैं । सो कैसे हैं ? वेदनीय १, आयु ३, गोत्र १, नामकी तिरेसठि तहां गति २, जाति १, शरीर ५, बंधन ५, संघात ५, संस्थान १, संहनन १, अंगोपांग ३, वर्णादिक २०, आनुपूर्य २, विहायोगति २, त्रस आदि १०, अगुरुलघु १, परघात?, उछ्वास १, आतप १, उद्योत १, निर्माण १, तीर्थकर १ ऐसें । बहुरि पापप्रकृति सोच । तहां घातिकर्मकी तौ ४७, वेदनीय १, आयु १, गोत्र १, नामकर्मकी ५० तहां गति २, जाति ४, संस्थान ५, संहनन ५, वर्णादिक २०, आनुपूर्व्य २, बसस्थावरआदि १०, उपघात १, प्रशस्तविहायोगति १ ऐसे
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