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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ।। पान ६४४ ॥
जो, इनका स्वरूप विशेषताकरि गोमटसारग्रंथ में लिख्या है, तहांतें जानूं । किछु संक्षेप प्रयोजन इनका लिखिये है | ए गुणस्थान जीवके सामान्यपरिणाम हैं, जातें इनका नाम अर्थ जो गुण कहिये जीवके गुण तिनके स्थान कहिये ठिकाणे सो गुणस्थान हैं, यह तौ सामान्यसंज्ञा । बहुरि विशेषसंज्ञा मोहकर्मके उदय आदिके विशेषतैं तथा योगतें भई है । तहां मिध्यादृष्टि ऐसा तो अनादिमिथ्यात्व नामा कर्म इस जीवकें पाईये है ताका उदयतें तत्वार्थनिका अश्रद्धानरूप परिणाम होय है । सो दो प्रकार है, एक तौ नैसर्गिक है, तातैं तौ अनादिहीतें अपना परका तथा हितअहितका यथार्थ स्वरूप भूलि रह्या है । जो पर्याय आवै है, ताहीकूं अपना स्वरूप मानि हिताहितं नाही जानि प्रवर्ते है । बहुरि दूजा परोपदेशतें प्रवर्ते है, तातें जैसा उपदेशदाता मिलै हितअहितका तथा आत्माका स्वरूप जैसा बतावै ताहीकूं सत्यार्थ जानि मिथ्यात्व के उदयतें तथा अनंतानुबंधी कषायके उदय तिमका पक्ष दृढ करि प्रवर्ते, जिनेश्वरकी आज्ञा जाननेवालाका उपदेशका श्रद्धानविना यथार्थमार्ग बाह्य प्रवर्ते ऐसे दोयप्रकार परिणाम जाके होय सो मिध्यादृष्टि जीव है । सो इसका दोय भेद हैं । जो अनादिहीतें जानें सम्यक्त्व पाया नाहीं सो तौ अनादिमिध्यादृष्टि हैं । बहुरि सम्यक्त्व पाये फिर मिथ्यात्वका उदयतें मिथ्यादृष्टि होय सो सादिमिध्यादृष्टि है । सो सम्यक्त्व
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