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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६४५ ॥
|| पावनेका विधान ऐसे है, जो, जब काललब्धि आवै तब मिथ्यात्वकर्मका तो अनुभाग मंदउदयः
रूप होय अर बाह्य सर्वज्ञ वीतराग जिनेश्वरका यथार्थमार्गका उपदेशका निमित्त मिले वीतरागकी मुद्रा निर्ग्रथगुरुका दर्शन तथा जिनेंद्रके कल्याणक आदिकी महिमाका दर्शन श्रवण प्रभावनाअंग अतिशयचमत्कारका देखना पूर्वभवका स्मरण होना इत्यादिक निमित्त मिले तब यथार्थतत्वार्थविर्षे रुचिरूप उत्साह ऐसा वधै, जो, आगे कदे हूवा नाहीं । ऐसें उत्साहमें तीनि करणका आरंभ होय है । तिनके नाम अधःकरण अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण ऐसैं । सो इनका आरंभ कैसैं जीवकै होय है सो कहिये है । शुभपरिणामनिके सन्मुख होय संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्तक होय साकार उपयोगसहित होय अंतर्मुहूर्तपर्यंत समयसमय अनंतगुणी विशुद्धताकरि वर्द्धमान होय एकयोगका आलंबनसहित होय अतिमंदकषायरूप परिणया होय तीनि वेदमेंसूं एकवेदके परिणाम संक्लेश. रहित होय विशुद्धताका बलतें कर्मकी स्थितिकू घटावता संता अशुभप्रकृतिनिका अनुभागबंधकू हीन करता संता शुभप्रकृतिनिका अनुभागबंधकू वधावता संता होय ताके करणनिका प्रारंभ होय
है । इन तीनूंही करणनिका काल अंतर्मुहूर्तका जुदाजुदा जानूं । इनका विशेषवर्णन गोमटसारतें || जानना ॥ तहां अनिवृत्तिकरणके अंतके समयकै लगताही अनादिमिथ्यादृष्टि तो मिथ्यात्व अरु
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