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॥ सर्वार्थसिद्धिघचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६४० ॥ भावसंवर द्रव्यसंवर ऐसें । तहां संसारका कारण जो क्रिया, ताकी निवृत्ति कहिये न होना, सो भावसंवर है । बहुरि तिस क्रियाके रोकनेते तिसके निमित्ततें कर्मपुद्गलका ग्रहण होय तिसका विच्छेद भया ग्रहण होता रह गया सो द्रव्यसंवर है । सो विचारिये हैं। कौंन गुणस्थानविर्षे किस आश्रका संवर भया? सो कहिये हैं । मिथ्यादर्शनके उदयके वशीभूत जो आत्मा ताळू मिथ्यादृष्टि कहिये । इस गुणस्थानविर्षे मिथ्यादर्शनकू प्रधानकरि जो कर्म आश्रव होय था, सो तिस मिथ्यादर्शनके निरोध कहिये अभावकरि सासादन आदि अगिले गुणस्थाननिविर्षे तिनका संवर होय है। ते प्रकृति कौंन सो कहिये हैं। मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नरकआयु, नरकगति, एकेन्द्रिय, दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ए च्यारि जाति, हुंडकसंस्थान, असंप्राप्तासृपाटिका संहनन, नरकगत्यानुपूर्य, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, साधारणशरीर, अपर्याप्त ए सोलह प्रकृतीका संवर भया । इनका आश्रव सासादनादिकविर्षे नाहीं है ॥
बहुरि असंयम तीनि प्रकार है अनंतानुबंधीका उदयकृत, अप्रत्याख्यानावरणका उदयकृत, प्रत्याख्यानावरणका उदयकृत । सो इस असंयमके निमित्ततें जिन प्रकृतिनिका आश्रव होय था, | सो तिस असंयमके अभावते तिनका संवर होय है। सो कहिये हैं। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला.
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