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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । अष्टम अध्याय । पान ६३५ ।। || पुद्गलस्कंध कर्मरूप होय हैं एक समयवि समयप्रबद्ध होय हैं ते अभव्यराशितें अनंतगुणे
सिद्धराशिकै अनंत भाग परिमाण हैं । बहुरि घनांगुलके असंख्यातवे भाग क्षेत्रविर्षे अवगाह करै ऐसे हैं। बहुरि ते एक दोय तीनि च्यारि संख्यात असंख्यात समयकी स्थितिकू लेकरि तिष्ठे हैं। पंच वर्ण, पंच रस, दोय गंध, च्यारि स्पर्श गुणरूप भावकू लिये आवै हैं । आठ प्रकार कर्मकी प्रकृतिके योग्य हैं, ते योगके वशतें आत्मा आप ग्रहण करै है । ऐसें प्रदेशबंधका वरूप संक्षेपतें जानना ॥ - आगे बंध पदार्थके अनंतर पुण्य पापभी गिणने ऐसी प्रेरणा है, सो पुण्यपाप बंधपदार्थविर्षे अंतर्भूत हैं, ऐसें जानना । तहां ऐसा कह्या चाहिये, जो, पुण्यबंध तो कहा है ? अर पापबंध कहा है ? तहां ऐसा पहले तो पुण्यप्रकृतिकी संख्या कहनेकू सूत्र कहै हैं--
॥सवेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥२५॥ याका अर्थ-- सातावेदनीय शुभआयु शुभनाम शुभगोत्र हैं ए पुण्यप्रकृति हैं । तहां शुभ तौ प्रशस्तकू कहिये, सराहनेयोग्य होय, सो शुभ है। सो शुभशब्द आयुआदि तीनि कर्मके न्यारा न्यारा कहना । तातें शुभआयु शुभनाम शुभगोत्र ऐसा जानना। तहां शुभआयु तो तीनि
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