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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ६२४ ॥ याका अर्थ- उच्चगोत्र नीचगोत्र ए दोय गोत्रकर्मकी प्रकृति हैं। तहां गोत्र दोयप्रकार हैं उच्चगोत्र नीचगोत्र । तहां जाके उदयतें लोकपूजितकुलविर्षे जन्म होय, सो उच्चगोत्र है। बहुरि तिसतें विपरीति निंद्यकुलमें जन्मका कारण होय, सो नीचगोत्र हैं। आगें आठमां अंतरायकर्मकी उत्तरप्रकृति कहनेकू सूत्र कहै है--
॥दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम् ॥ १३ ॥ याका अर्थ-- दान लाभ भोग उपभोग वीर्य इन पांचनिका विघ्न करनेवाली अंतरायकी पांच प्रकृति हैं । तहां अंतराय करनेकी अपेक्षा भेद कहे हैं । दानका अंतराय लाभका अंतराय इत्यादि । जाके उदयतें देनेकी इच्छा करै तौऊ दीया न जाय, सो दानान्तराय है। लेनेकी इच्छा होय सोऊ पावै नाही, सो लाभांतराय है । भोगनेकी इच्छा होय भोगने पावै नाही, सो भोगांतराय है । उपभोग करनेकी इच्छा होय उपभोग पावै नाहीं, सो उपभोगान्तराय है । कोई कार्यका उत्साह करै उत्साहकी सामर्थ्य न होय सो वीर्यातराय है। ऐसे ये अन्तराय कर्मकी पांच प्रकृति जानना । ऐसें प्रकृतिबंधके भेद तो कहे । अब स्थितिबंधके भेद कहने हैं, सो स्थिति दोयप्रकार है, उत्कृष्ट जघन्य । तहां जिन प्रकृतिनिकी उत्कृष्टस्थिति समान है, ताका निर्देशके अर्थि सूत्र कहै हैं
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