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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ६२७ ॥ | इहांभी संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकही बंधै है, अन्यकै आगमतें जाननी ॥
___ आगे, उत्कृष्टस्थिति तो कही, अब जघन्यस्थिति कहनी है, तहां पांचकर्मकी तो जघन्यस्थिति समान है, सो न्यारी कहसी, अर तीनि कर्मकी स्थितिमें विशेष है, सो पहली कहें हैं । तहां दोय सूत्र हैं--
॥ अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य ॥१८॥ ___याका अर्थ-- वेदनीयकर्मकी जघन्यस्थिति बारह मुहूर्तकी है । इहां अपरा ऐसा | जघन्यका नाम लेणा ॥
॥ नामगोत्रयोरष्टौ ॥ १९॥ याका अर्थ-- नामकर्म गोत्रकर्म इन दोऊनिकी जघन्यस्थिति आठ मुहूर्तकी है। इहां अपरास्थिति अन्तर्मुहूर्त इन शब्दनिकी अनुवृत्ति है। आगें, पांच कर्म न्यारे राखे थे, तिनकी जघन्यस्थिति कहने• सूत्र कहै हैं
॥शेषाणामन्तर्मुहूर्ता ॥२०॥ याका अर्थ- शेष कहिये बाकीके पांच कर्म ज्ञानावरण दर्शनावरण अंतराय मोहनीय |
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