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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । अष्टम अध्याय ॥ पान ६३१ ॥
विशेषनिकरि भस्खा भ्रमणरूप ऐसा जो संसाररूप समुद्र ताविर्षे घणे कालतें भ्रमता जो यह प्राणी ताकै शुभअशुभ कर्म अनुक्रमकरि परिपाककू प्राप्त होय स्थिति पूरी करि अनुभव कहिये भोगनेका जो उदयावलीरूप नाला ताकेविर्षे प्राप्त होय अपना फलकू देय झडै है, सो तौ सविपाकनिर्जरा है । बहुरि जो कर्म स्थिति पूरी करि अपना उदयकालकून प्राप्त भया अर तपश्चरण आदि उपचारि कियाके विशेषनिकी सामर्थ्यते विना उदय आयाही• जोरीतें उदारणा करि उदयावलीमें लेकरि वेदना भोगना “ जैसें आम्र तथा फनसका फल पालमें देकरि शीघ्र पचावै तैसें पचाय लेना" सो अविपाकनिर्जरा है । बहुरि सूत्रमें चशब्द है सो निर्जराका अन्यभी निमित्त है ऐसा जनावनेके अर्थ है। आगे कहेंगे जो तपसा निर्जरा ऐसासूत्र सो अनुभवतें निर्जरा होय है बहुरि तपतेंभी होय है ऐसा जनाया है।
इहां पूछे है, कि, इस अध्यायमें निर्जराका कथनका कहा प्रयोजन ? संवरके पीछे निर्जरा कह्या चाहिये । जातें संवरके पीछे याका नाम है तैसेंही कहना । ताका समाधान, यह लघुकरणका
प्रयोजन है, जो, संवरके पीछे याकू कहते तो तहांभी — विपाकोऽनुभवः' ऐसा, फेरि कहना होता, | तातें इहां कहने में फेरि नाही कहना होय सो इहां विशेष कहिये है। ते कर्मप्रकृति दोयप्रकार हैं, |
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