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॥ सर्वार्थसिदिषचनिका पंडित जयचंदजीकता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ६२५ ॥ ॥ आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः॥१४॥
___याका अर्थ- आदितें कहे जे ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय ए तीनि बहुरि अंतराय इन च्यारि कर्मनिकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागरकी बंधै है । इहां आदितः ऐसा शद तो मध्यके तथा अंतके न लेने इसवास्तें कह्या है । अर अंतरायका ग्रहण न्यारा हैही । बहुरि सागरोपमका पहली स्वरूप कह्याही था । बहुरि कोडिकोडि• कोटीकोटी कहिये । बहुरि परा कहनेतें उत्कृष्ट जानना। एहां ऐसा अर्थ भया, जो, ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय अंतराय इन च्यारिनिकी उत्कृष्टस्थिति तीस कोडाकोडी सागरकी है । सो यह मिथ्यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवकै बंध होय है, अन्य जीवनिकै आगमतें जानना । तहां एकेन्द्रिय पर्याप्तकें एकसागरके सात भाग कीजै तामें तीनि भाग, बहुरि द्वीन्द्रियपर्याप्तके पचीस सागरके सात भाग कीजै तामें तीनि भाग, त्रीन्द्रियपर्याप्तकें पचास सागरके सात भाग कीजे तामें तीनि भाग, चतुरिन्द्रियके सौ सागरके सात भाग कीजै तामें तीनि भाग, असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तके एक हजार सागरके सात भाग कीजै तामें तीनि भाग, बहुरि अपर्याप्तकै संज्ञी पंचेन्द्रियकै तौ अंतःकोडाकोडी सागरकी जानना अर एकेन्द्रियादिककै पूर्वोक्त भाग पल्यकें असंख्यातवां भाग करि हीन जानने । बंधके प्रथम समयतें ||
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