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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ६२३ ॥
कीर्तिनाम है । बहुरि जाके उदयतें अचिंत्य विभृतिविशेषसहित अरहंतपणा पावै, सो तीर्थंकरनाम है ।। इहां कोई कहै, गणधर चक्रवर्ती आदिभी बडी विभूति पावैं हैं, तिनकी प्रकृति क्यौं न कहौ ? ताकूं कहिये, जो, ऊच्चगोत्रादिकके उदयतें होय है । तातैं न्यारे न कहे अर तीर्थंकर होय हैं ते मोक्षमार्ग प्रवर्तावे है, यह फल चक्रवर्त्यादिककै नाहीं है । तहां चौदह तौ पिंडरूप प्रकृति हैं तिनके पैसठ भेद हैं । गति ४ । जाति ५ । शरीर ५ । अंगोपांग ३ | निर्माण २ । बंधन ५ । संघात ५ । संस्थान ६ । संहनन ६ | स्पर्श ८ । रस ५ । गंध २ | वर्ण ५ । आनुपूर्व्य ४ । विहायोगति २ ऐसें ६५ | बहुरि प्रत्येकशरीर आदि १० प्रतिपक्षीसहित कही ते बीस अर आठ अगुरुलघु आदिक ऐसे अठाईस अपिंडरूप हैं । ऐसें सब मिलि तेरणवै प्रकृति जाननी । सूत्रमें इकतीसकें तौ न्यारी विभक्ति करी ते प्रतिपक्षी जाननी । दशके सेतर पद दे न्यारी विभक्ति करी, ते सप्रतिपक्षी जाननी । तीर्थंकर न्यारी विभक्ति करी सो याकेँ प्रधानपणा जनावनके अर्थ है ॥
आगे, नामकर्मकी प्रकृतिनिके भेद तौ कहे अब याके अनंतर कह्या जो गोत्रकर्म ताकी प्रकृतिका भेद कहिये हैं
॥ उच्चैर्नीचैश्च ॥ १२ ॥
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