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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥पान ६१२ ॥
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तीनि भेद, सम्यक्त्व मिथ्यात्व मिश्र ऐसें । सो बंधअपेक्षा तो एक मिथ्यात्वही है । अर सत्ताकी अपेक्षा तीनिप्रकार होय तिष्ठे है । तहां जाके उदयते सर्वज्ञका भाष्या जो स्वर्गमोक्षका मार्ग, तातें पराङ्मुख होय तत्वार्थका श्रद्धानविर्षे उत्साहरहित होय हितअहितका भेद जाननेकू असमर्थ होय ऐसा मिथ्यादृष्टि होय ताका ऐसा भाव सो मिथ्यात्व कहिये । बहुरि तिसही मिथ्यात्वका भेदकू सम्यक्त्व संज्ञा है । जातें जो शुभपरिणामकरि विशुद्धताके बलतें जाका विपाकरस हीन होय गया | होय उदासीनकीज्यों अवस्थित हुवा संता आत्माके श्रद्धानकू रोकि सकै नाही, तिसके उदयकू वेदता संता पुरुष सम्यग्दृष्टिही कहिये, सो सम्यक्त्व नाम है ॥
बहुरि सोही मिथ्यात्व अपना रस आधाक शुद्ध भया आधाक मिथ्यात्व रह्या ऐसा होय ऐसे | अमलके कोऊ होय है तिनकू जलते पखालतें पखालतें तिनकी मदशक्ति क्यों मिटी क्यों रही होय है तैसें होय, सो मिश्र कहिये, याकू सम्यमिथ्यात्वभी कहिये । याके उदयतें आत्माका श्रद्धान नामा परिणाम मिथ्यात्व सम्यक्त्व दोऊ मिल्या हुवा मिश्ररूप होय है । जैसें मदके कोंटू धोयेते आधे शुद्ध भये तिनकू कोई भात पचाय खाय ताके निमित्ततें किछू अमल किछू चेतन | ऐसा मिश्रपरिणाम होय है तैसें जानना ॥
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