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। सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ६१४ ॥
मिथ्यात्वकी अनुसारणी याकै लारलगी यातें अनुराग करावनहारी होय, सो अनंतानुबंधी है । याके उदयतें सर्वथा एकांतरूप झूठा तत्वविर्षे तौ राग प्रीति होय है । अनेकान्तरूप सांच तत्वार्थतें द्वेष होय है। झूठाकू साचा थापि ताकी पक्ष करै है, ताके विर्षे सत्यार्थका अभिमान करै है, जो हमारा मानना सत्यार्थ है इत्यादि चेष्टा होय है । बहुरि जाके उदयतें एकदेशत्यागरूप श्रावकके व्रत किंचिन्मात्रभी करि सके है सो देश ईषत्पत्याख्यानकू आवरण करै, सो अप्रत्याख्यानावरण है । बहुरि जाके उदयतें सकल संयमकू न पाय सकै, सो सकलपत्याख्यानकू न आचरै, तातै प्रत्याख्यानावरण है । बहुरि संयमकी लार एक होय तिष्ठै दैदीप्यमान रहै तथा तिसके होतें संयमभी दैदीप्य. मान रह्या करै सो संज्वलन है।
इहां वेदनीयके भावनिका विशेष ऐसा, जो, स्त्रीसूं रमनेआदि विकारभाव होय सो तौ पुरुषवेदके भाव हैं । बहुरि नपुंसकवेदविौं स्त्रीपुरुष दोऊतूं रमनेरूप आदि विकारभाव होय हैं । बहुरि स्त्रीवेदके भावका विशेष सो लजाकरि नम्रीभूतपणा होय, अर जाके मनकी ग्लानि प्रगट
न दीखे, कामका अभिप्राय रहै, नेत्रनिका विभ्रम होय, आलिंगनितें सुख माने, पुरुषसू रमनेकी || वांछा रहै इत्यादिक जानना । सो भावनिका विशेष ऐसा कदाचित् पुरुषकैभी होय तब स्त्रीवेदका
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