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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ६१७ ॥ | प्रकति , च्यारि मोहनीयकी, पर्चास कषायरूपप्रकृति ए अठाईस कहीं ॥ आगे आयुकर्मके उत्तरप्रकृतिके निर्णयके अर्थि सूत्र कहै हैं
॥नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि ॥ १० ॥ याका अर्थ- नारक तैर्यग्योन मानुष दैव ए च्यारि प्रकृति आयुकर्मकी हैं। तहां नरकआदिविर्षे भवके संबंधकरि आयुका नाम कीया है। जो नरकविर्षे उपजनेकू कारण कर्म, सो नारकआयु है । जो तिर्यंचयोनिविर्षे उपजनेकू कारण कर्म, सो तैर्यग्योन है । जो मनुष्यविर्षे उपज. नेकू कारण कर्म , सो मानुष है | जो देवनिविर्षे उपजने... कारण कर्म, सो दैव है । इहां भावार्थ | ऐसा, जो, जिस पर्यायमें यह जीव उपजै, तिसविर्षे जीवना मरना इस आयुके आधीन है। तिस पर्यायसंबंधी दुःख तथा सुख आयुपर्यंत भोगवै है ॥
आगें याके अनंतर कह्या जो नामकर्म ताकी उत्तरप्रकृति के निर्णयके अर्थि सूत्र कहै हैं
॥ गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गनिर्माणबन्धनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगन्धवर्णानु| पूर्व्यागुरुलघूपघातपरघातातपोद्योतोच्छासविहायोगतयः प्रत्येकशरीरत्रससुभगसुस्वरशु| भसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरादेययशःकीर्तिसेतराणि तीर्थकरत्वं च ॥ ११ ॥
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