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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ६१५ ॥
उदय कहिये । तथा नपुंसककैभी कदाचित् ऐसे भाव होय तत्र स्त्रीवेदहीका उदय कहिये । बहुरि स्त्रीकैभी कदाचित पुरुषनपुंसकके भावरूप वेदका उदय होय है अर शरीरके आकाररूप द्रव्य स्त्री पुरुष नपुंसक होय हैं । ते आकार नामकर्मके उदयतें होय हैं ।
बहुरि क्रोधादिपरिणामका विशेष, तहां अपना परका जातें घात होय बहुरि उपकार जानें नाहीं अहित करनेवाला क्रूरपरिणाम होय ताकूं अमर्ष कहिये, सोही कोष है । इहां भावार्थ ऐसा भी, जो परद्रव्य परणमें तामें ऐसे भाव होय, जो 'यह ऐसें क्यों परिणामें' ऐसें खुनसि होय सो क्रोध है । ताका ती मंद अपेक्षा च्यारि अवस्था हैं । ताके च्यारि दृष्टांत - तीव्रतर तौ पापा
की रेखासारिखा होय, घणे कालमें मिटै । तीव्र पृथ्वी की रेखासारिखी होय, सो थोरेही कालमें मिट जाय । मंद धूलिरेखासारखी होय, सो अल्पकालही में मिटि जाय । मंदतर जलकी रेखासारखी होय, सो तत्कालही मिटि जाय । ऐसें वासनातें क्रोधका विशेष है ॥
बहुरि जाति आदि आठ मदके कारण हैं, तिनके अवलंबनतें परतें नमनरूप परिणाम न होय सो मान है । याकैभी तीव्र मंद अपेक्षा च्यारि दृष्टान्त हैं । तीव्रतर तो पाषाणके स्तंभसारिखा होय, जो खंड तौ होय परंतु नमना कठिन । बहुरि तीव्र अस्थिसारिखा होय, सो कोई कारणविशेषतें
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